Monday, October 7, 2013

मेरा अक्स, मेरा साया, घर का आइना और घुप्प अँधेरा

१. मैं खाता हूँ कसमे आईने की
    और तोड़ देता हूँ आइना ही. 
    चिर काल से कसम खा रहा हूँ,
    घर में एक भी शीशा नहीं बचा
    आखिर खफा किससे हूँ,
    आईने से या अपने वादों से
    या शायद अपनी सूरत से नाराज़ हूँ,
    कि अपने अक्स से नजरें नहीं मिलानी अब.

२. वक़्त रोज़ यूँ भागता हैं
    मानो कल मिलेगा नही
    एक शह दे रखी है जिंदगी ने
    मेरी मात का इंतज़ार है
    तैयार बैठे हैं सारे साए 
    अँधेरे कोनों में घात लगाये
    एक हम हैं जो हस देते हैं देखकर
    कि अपना साया भी कोने में छुप गया है अब.

1 comment:

  1. शायद इसमे दिल की वो बेचैनी छुपी है, जो इनसान किसी से बाँट नहीं सकता। खुद से किए गए वादों को तोड़ते हुए इतनी मुद्दतें हुईं, कि अब खुद से नज़रें मिलाने का भी दिल नहीं करता!
    बहुत खूब! मैं इस जज़्बे से बखूबी वाकिफ हूँ। मात तो लगभग हो ही चुकी, अब बस पल दो पल की जीत में हम पूरी उम्र की जीत का जश्न मानते हुए ज़िंदा हैं।

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