Thursday, July 5, 2012

चासनी

हम अपनी नयी दुनिया में ढल गए थे,
वो प्रातः उठाना और फिर सो जाना.
बिलकुल आखिरी क्षण कक्षा में आते थे,
बाल बिखरे और आँख मींचे रोजाना.
आइने की फिक्र करना भूल गए थे,
कैंटीन की सस्ती चाय से सुस्ती मिटाना
किताबों से अधिक अंतरजाल प्यारा लगने लगा
सवेरे से संध्या तक बस स्क्रीन पर आँखें टिकाना
यारों के संग टहलने लगे थे निशाचरों की भांति
यौवन का दंभ था कहते कि लायेंगे हम भी क्रांति
आँहें भी भरते थे गलियारों में उनको देखकर
मुस्कुराती आँखें मिलती तो पूरा दिन बन जाना
साल बीतने को है, जाने अब कब बात होगी
यारों से बिछड़ने कि बात पर दिल का ठिठक जाना
छुट्टियों  में घर तो सिर्फ सेहत बनाने जाने थे
बड़े अंतराल पर मिलता था माँ के हाथ का खाना
आखिरी साल है, कॉलेज अब खत्म होने को है, सब खट्टा-मीठा लग रहा है
बगैर चासनी जो शरबत पिलाई थी यारों ने, उसका स्वाद याद आ रहा है

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