मैं किस्से कहानियाँ लिखने से
हिचकिचाता हूँ, डर लगता है कहीं ये आदत न बन जाये. पर ये किस्सा लिखे बगैर मुझे
नींद नहीं आने वाली थी.
बात तब कि है जब मैं “IITJEE” की तयारी के लिए कोटा के “Resonance” इंस्टिट्यूट में पढ़ रहा था. वहाँ कुछ नियम बद्ध काम होते थे. जैसे रोज सुबह दोस्तों के साथ चाय और पोहा-जलेबी खाने जाना. सुबह के ये बहुत ही दिलचश्प और मीठा नाश्ता हुआ करता था. ऐसे ही शाम को किराने कि दूकान पर समोसे, कोल्डड्रिंक का सेवन. उस मोहल्ले में इकलौती दुकान वही थी और ज़ाहिर बात बार वहाँ भीड़ हुआ करती थी. करीब ४ महीने वहाँ रहने के बाद लगभग सारे चेहरों से जान पहचान हो गयी थी और वो दुकान हम दोस्तों का अड्डा बन गयी थी. बात दिसम्बर कि है, या शायद जनवरी कि याद नहीं. पर ये याद है कि ठण्ड बहुत थी और कोहरा सुबह ८ बजे से पहले हिलता भी नहीं था बेशक सूरज निकल आये. उन्ही दिनों में हमारे मोहल्ले में कई लोग आये. उनमे से एक थी “वो” .
“वो” इसलिए कि मुझे उसका नाम याद नहीं अब.
“वो” को मैंने सिर्फ दो ही बार ही देखा है आजतक.
उन्ही दिनों मुहल्ले में एक कुतिया ने ६ पिल्लों को जन्म दिया था जिनमे से एक अत्यधिक ठण्ड कि वजह से दूसरे दिन ही मर गया था.
“वो” को मैंने पहली बार उसी किराने की दुकान पर देखा था. आज तो मुझे उसका चेहरा तक याद नहीं पर उस दिन मैं शर्त लगा के कह सकता था कि वो बहुत सुन्दर थी . पहली ही नजर में “वो” किसी को भी आकर्षित कर लेती थी. उसके बोलने का ढंग, उसके चलने का ढंग, उसका रूप उसका रंग. मैंने उसे एक नजर भर देखा फिर खुद ही आँखें हटा ली. पर उसने मुझे देखा और थोड़ा मुस्कुरा के चल पड़ी. “वो” मेरे घर से ३ घर छोड़ कर अंदर चली गयी.
मैंने उसके जैसी ख़ूबसूरत लड़की पहले नहीं देखी थी.
२ हफ्ते बाद कुतिया भी चल बसी और बाकि के ५ पिल्लै भी एक या दो दिन के ही मेहमान रह गए थे. ठण्ड बढ़ गयी थी, अब रोज सुबह कम्बल से निकल कर चाय पीना मुश्किल हो गया था.
शाम को दोस्तों की मंडली फिर भी लगती थी, बातों में अक्सर चर्चा “वो” का होता था. जब टिप्पणियां सीमा से बाहर जाने लगती तो मैं वापस अपने कमरे की ओर निकल लेता.
बात तब कि है जब मैं “IITJEE” की तयारी के लिए कोटा के “Resonance” इंस्टिट्यूट में पढ़ रहा था. वहाँ कुछ नियम बद्ध काम होते थे. जैसे रोज सुबह दोस्तों के साथ चाय और पोहा-जलेबी खाने जाना. सुबह के ये बहुत ही दिलचश्प और मीठा नाश्ता हुआ करता था. ऐसे ही शाम को किराने कि दूकान पर समोसे, कोल्डड्रिंक का सेवन. उस मोहल्ले में इकलौती दुकान वही थी और ज़ाहिर बात बार वहाँ भीड़ हुआ करती थी. करीब ४ महीने वहाँ रहने के बाद लगभग सारे चेहरों से जान पहचान हो गयी थी और वो दुकान हम दोस्तों का अड्डा बन गयी थी. बात दिसम्बर कि है, या शायद जनवरी कि याद नहीं. पर ये याद है कि ठण्ड बहुत थी और कोहरा सुबह ८ बजे से पहले हिलता भी नहीं था बेशक सूरज निकल आये. उन्ही दिनों में हमारे मोहल्ले में कई लोग आये. उनमे से एक थी “वो” .
“वो” इसलिए कि मुझे उसका नाम याद नहीं अब.
“वो” को मैंने सिर्फ दो ही बार ही देखा है आजतक.
उन्ही दिनों मुहल्ले में एक कुतिया ने ६ पिल्लों को जन्म दिया था जिनमे से एक अत्यधिक ठण्ड कि वजह से दूसरे दिन ही मर गया था.
“वो” को मैंने पहली बार उसी किराने की दुकान पर देखा था. आज तो मुझे उसका चेहरा तक याद नहीं पर उस दिन मैं शर्त लगा के कह सकता था कि वो बहुत सुन्दर थी . पहली ही नजर में “वो” किसी को भी आकर्षित कर लेती थी. उसके बोलने का ढंग, उसके चलने का ढंग, उसका रूप उसका रंग. मैंने उसे एक नजर भर देखा फिर खुद ही आँखें हटा ली. पर उसने मुझे देखा और थोड़ा मुस्कुरा के चल पड़ी. “वो” मेरे घर से ३ घर छोड़ कर अंदर चली गयी.
मैंने उसके जैसी ख़ूबसूरत लड़की पहले नहीं देखी थी.
२ हफ्ते बाद कुतिया भी चल बसी और बाकि के ५ पिल्लै भी एक या दो दिन के ही मेहमान रह गए थे. ठण्ड बढ़ गयी थी, अब रोज सुबह कम्बल से निकल कर चाय पीना मुश्किल हो गया था.
शाम को दोस्तों की मंडली फिर भी लगती थी, बातों में अक्सर चर्चा “वो” का होता था. जब टिप्पणियां सीमा से बाहर जाने लगती तो मैं वापस अपने कमरे की ओर निकल लेता.
कुछ
३ हफ्ते बाद मुझे किसी मित्र को स्टेशन से लाने जाना था. मैं जनवरी की कड़ाके की
सर्दी में सुबह चाय पीने निकल पड़ा. सुबह के ६:३० बज रहे थे. मैंने दुकान वाले भैया
को चाय के लिए बोलकर वहीं बेंच पर बैठ गया. कुतिया के पांचो पिल्ले वहीं आसपास खेल
रहे थे. मैं चाय पीते पीते सोच ही रहा था कि वो अब तक जीवित कैसे हैं इतने में “वो”
वहाँ आई. उसने एक ब्रेड का पैकेट खरीदा. उसके हाथ में एक प्लास्टिक कटोरी (bowl) थी. उसमे थोड़ा दूध भी पड़ा था. उसने
ब्रेड का पैकेट खोला और ब्रेड के टुकड़े दूध में भिगो कर अपने हाथों से उन पिल्लों
को खिलाने लगी. मेरी चाय खत्म हो गयी और मुझे ठण्ड भी नहीं लग रही थी. मैंने जाते
जाते उसे एक और बार देखा.
उसका चेहरा याद नहीं पर उसकी आखों कि चमक नहीं भूल सकता.
मैंने उस जैसी ख़ूबसूरत लड़की फिर कभी नहीं देखी.
उसका चेहरा याद नहीं पर उसकी आखों कि चमक नहीं भूल सकता.
मैंने उस जैसी ख़ूबसूरत लड़की फिर कभी नहीं देखी.
मैंने दूसरी गली से निकलते एक ऑटो को आवाज़ दी और स्टेशन की ओर चल पड़ा.
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