Monday, March 25, 2013

शक्ति का संघर्ष (II) - धर्मं

जारी ..
अपने  इस लेख के माध्यम से मैं शक्ति के संघर्ष को विस्तार से परिभाषित करने का प्रयास कर रहा हूँ. मैं स्वयं इस खोज में लगा हूँ कि आखिर शक्ति के आज के इस विश्वस्तरीय संघर्ष में सबसे अहम भूमिका किसकी है?
क्या वो धर्म की है, या जाति की, या भाषा की, या राष्ट्रवाद की, या लिंग की, या फिर पैसे की?
क्या ये अपना वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई है?
या फिर ये सिर्फ अपना अस्तित्व बरक़रार रखने का संघर्ष है?

हमारा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है.

तुम्हारा ये लिबास हमसे मेल नहीं खाता, 
तुम्हारी भाषा हमें समझ नहीं आती,
तुम्हारा  रंग चेहरे का हमे रास नहीं आता,
तुम्हारे घर की छत इतनी ऊँची क्यूँ,
तुम्हारा खान पान भी हमे नहीं भाता
 तुम हमसे भिन्न हो, तुम्हे इसका दंड मिलेगा
क्यूँकि तुम ठहरे बीस हम सहस्त्र हैं खड़े
तुम्हारा सत्य नगण्य है हमारे सत्य के समक्ष
 इसलिए हम सही हैं और तुम गलत.
हमे चुना गया है तुम्हे सही राह दिखाने को
क्यूंकि हमारा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है.




इतिहास के पन्नों में अंकित है कि मानव सभ्यता पिछले ८००० वर्षों के दौरान, सिर्फ ३०० वर्षों में शांति के साथ रही है अन्यथा परस्पर विवाद और युद्ध होते आ रहे हैं. धर्म ने शक्ति के संघर्ष में आग में घी की भूमिका निभाई है. ये सिर्फ हमारा एक सुखद भ्रम है कि ईश्वर और धर्म मनुष्य के जीवन में सुख और शांति प्रदान करते हैं.
धर्म की चर्चा को मैं यहाँ एक विराम दे रहा हूँ.

समाप्त


Wednesday, March 20, 2013

शक्ति का संघर्ष (II) - धर्म

जारी ....
धर्म की उत्पत्ति, विकास और प्रभाव 

पिछली कड़ी में मैंने ये बताने कि कोशिश की थी कि कैसे धर्म शक्ति हासिल करने और लोगों पर शासन करने का एक माध्यम है. लेकिन अगर मैं सिर्फ यही कहने तक सीमित रह जाऊं कि धर्म सिर्फ शक्ति अर्जित करने का माध्यम था और कुछ नहीं तो मैं आपको सारे तथ्य नहीं बता पाऊंगा.
प्रकृति के संसाधन हर किसी को बराबर भाग में नहीं मिलते. संसार की हर प्राचीन सभ्यता एक दूसरे से विषम परिस्तिथिओं में विकसित हुईं हैं. इसीलिए उनके ईश्वर और धार्मिक ग्रन्थ भिन्न हैं. पर एक मूलभूत विचार जो हर धार्मिक ग्रन्थ और हर नयी पुरानी सभ्यता इतिहास में साफ़ साफ़ अंकित है वो है प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाना और प्राकृतिक संसाधनों का सही इस्तेमाल करना. जब पृथ्वी पर सभ्यताओं के अंकुर फूट रहे थे तब मनुष्य का जीवन अव्यवस्थित और अराजक था. ऐसे में मानव समाज को, जो विश्व की महान नदियों और समुद्र के किनारे फल फूल रहा था, दिशा और नियम की आवश्यकता थी.
यही वो महत्त्वपूर्ण समय है जब धर्म ने मनुष्य को प्रकृति से जोड़ा और प्राकृतिक संसाधनों का आदर करने के लिए कई धर्मों ने उन्हें ईश्वरीय रूप दिया. इन नियमों को मानने या न मानने पर मनुष्य के पास पुरस्कार या दंड के ही विकल्प थे.
इसके अलावा हर धर्म के ऋषिओं, पैगम्बरों और गुरुओं ने प्रकृति के नियमों को समझने और समझाने का भी प्रयत्न किया. ऋतुओं के चक्र का उल्लेख हुआ , पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और प्रमुख ग्रहों के प्रावेदन और उसके कथित प्रभावों का भी अध्ययन किया गया.
धर्म ने समाज में नैतिकता प्रयुक्त की और सही गलत में अंतर बताने के लिए एक शक्तिशाली , अपरिमित और निष्पक्ष ईश्वर स्थापित किया. ये सभ्यताओं का स्वर्णिम समय था.

पर शक्ति किसी को भी भ्रष्ट कर सकती है चाहे वो धर्म हो या मनुष्य. और अपने शक्ति के अहंकार में धर्म के प्रचारकों ने अपनी त्रुटियाँ देखने से इनकार कर दिया. विज्ञान पढ़ने और पढाने वालों को कैद किया गया, यंत्रणा दी गयी या हत्या कर दी गयी. धर्म में संशोधन और विकास की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी.
धर्म ने पुरुष और स्त्री में भी भेदभाव किया और लगभग सभी प्रमुख धर्मों ने स्त्री को अधीनस्थ बताया. (नारी-शक्ति के ऊपर विस्तार से चर्चा अगले भाग में करूँगा.)
जब कोई भी वस्तु शिथिल हो जाती है तो वह निष्क्रिय होने लगती है. इसलिए मेरे अनुसार आज संसार के सभी प्राचीन धर्म लगभग निष्क्रिय हो गए हैं और वर्तमान में ये नकारात्मक बल का ही काम कर रहे हैं. शक्ति के संघर्ष में "धर्म", "अर्थ" (मुद्रा) और "राज्य" (state/administration) के सामने फीका पड़ने लगा है. लेकिन आज भी "धर्म" मनुष्य के जीवन का और हमारे समाज की व्यवस्था में एक  महत्त्वपूर्ण अंग है.
.
.
...क्रमशः

Monday, March 18, 2013

शक्ति का संघर्ष (II) - धर्म

ईश्वर और धर्म की उत्पत्ति .

मैंने  पहले अध्याय में लिखा था कि शक्ति का संघर्ष जीवन की शुरुआत से ही चल रहा है. इस बा मैं धर्म की चर्चा करूँगा. धर्म बहुत संवेदनशील विषय है इसलिए सभी पाठकों से आग्रह है कि ये लेख पढते वक्त अपना धर्म ग्रंथों में ही रहने दे.
संसार के सभी धर्म ये दावा करते हैं कि वो एक महान, सर्वशक्तिशाली ईश्वर की पूजा करते हैं. एक ऐसा ईश्वर जिसने इस श्रृष्टि का निर्माण किया और जो इस सृष्टि और संपूर्ण जीवन का विनाश भी कर सकता है. सभी धर्मग्रन्थ ये कहते हैं कि ईश्वर से मनुष्य की  उत्पत्ति हुई है. 
पर ये कथन कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया मुझे हास्यास्पद और भयावह लगता है क्यूंकि मैं ये समझता हूँ कि ईश्वर ने मनुष्य की रचना नहीं की, बल्कि मनुष्य ने ईश्वर नामक भ्रम की रचना की. एक भ्रम जो फैलाया गया अनुभवहीन मनुष्यों में और जो प्रसारित किया गया एक दिशाहीन भीड़ पर अंकुश रखने के लिए. एक असत्य जिसे इतना बड़ा बना दिया गया कि कोई भी सत्य उसे चुनौती नहीं दे सके.
ये एक बहुत विस्तार से गूंथी हुई भ्रान्ति है. इस भ्रम के इर्द गिर्द एक मायाजाल बुना गया कहानियों का. ये कथाएं पुरस्कार के प्रलोभन और सजा के भय पर आधारित हैं. दरअसल किसी भी भीड़ का दिमाग बहुत सरल होता है. भीड़ का मष्तिष्क नवजात शिशु  के जैसा होता है. उसपर नियंत्रण सिर्फ दो ही तरीकों से किया जा सकता है.
१. पुरस्कार के लोभ दिखाकर
२. सजा का डर स्थापित कर के.
 हर सभ्यता अपने शुरूआती चरणों में एक अबोध बालक की भांति अनभिज्ञ और अकृषित होती है. ये समय उस सभ्यता को दिशा प्रदान करने के लिए सबसे उपयुक्त होता है. इसी समय अपना नियंत्रण स्थापित करने और शक्ति में अपना हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए कुछ पूर्वदर्शी मनुष्यों ने धर्म और ईश्वर का निर्माण किया.
"आप मुझे सिर्फ १००  नवजातों का समूह दे और मैं आपको एक नया धर्म स्थापित करके दिखा दूँगा. "
.
.....
क्रमशः




Wednesday, March 13, 2013

पर याद है कुछ खोया है

कुछ बहुत धीमे से फिसला है मेरे हाथों से,

ध्यान नहीं है,

होगा कुछ छोटा सा,

पता नहीं कब छिटक पड़ा,

कोई आवाज़ नहीं आई,

होगा कुछ गैर जरूरी सा.



कोई अवसाद नहीं मुझको,

कोई चिंता नहीं,

कागज का टुकड़ा था शायद ,

या कोई पुरानी चाभी थी,

हो सकता है ये वहम हो मेरा,

पर याद है कुछ खोया है.

Followers