Thursday, December 20, 2012

इंसान जानवर से भी बदतर है.

आइये जरा आज का इंसान देखिये;
कोई कहे हिन्दू हूँ, कोई सिख, कहीं ईसाई कहीं मुसलमान देखिये,
बड़ा गजब दिखता है इंसान देखिये।
कभी मिट्टी की कीमत लगाता है, कभी बेचता अपना ईमान देखिये,
बड़ा सस्ता बिकता है इंसान देखिये।
अपनी शर्म बेच दी, दूसरों की लूटता है, अपना धर्म दूसरों पर ठूसता है,
हर ओर बुत से खड़े भगवान देखिये।
भेड़ों की भीड़ में भेड़िये सा, सियार सा सयाना , गिरगिट से भी  तेज़
हर पल रंग  बदलता इंसान देखिये।
माँ-बहन-बेटियों की इज्ज़त नहीं है, आज़ादी नहीं है, खुद मर्द जो भी करे,
ऐसे  हैं हमारे संस्कार महान देखिये।
आस्तीन मे कितने साँप पाले हैं, जरा झांक के अपना गिरेबान देखिये,
जानवर से भी बदतर है इंसान देखिये ।

Saturday, November 24, 2012

कोटा की यादें २



मैं किस्से कहानियाँ लिखने से हिचकिचाता हूँ, डर लगता है कहीं ये आदत न बन जाये. पर ये किस्सा लिखे बगैर मुझे नींद नहीं आने वाली थी.

बात तब कि है जब मैं “
IITJEE” की तयारी के लिए कोटा के “Resonance” इंस्टिट्यूट में पढ़ रहा था. वहाँ कुछ नियम बद्ध काम होते थे. जैसे रोज सुबह दोस्तों के साथ चाय और पोहा-जलेबी खाने जाना. सुबह के ये बहुत ही दिलचश्प और मीठा नाश्ता हुआ करता था. ऐसे ही शाम को किराने कि दूकान पर समोसे, कोल्डड्रिंक का सेवन. उस मोहल्ले में इकलौती दुकान वही थी और ज़ाहिर बात बार वहाँ भीड़ हुआ करती थी. करीब ४ महीने वहाँ रहने के बाद लगभग सारे चेहरों से जान पहचान हो गयी थी और वो दुकान हम दोस्तों का अड्डा बन गयी थी. बात दिसम्बर कि है, या शायद जनवरी कि याद नहीं. पर ये याद है कि ठण्ड बहुत थी और कोहरा सुबह ८ बजे से पहले हिलता भी नहीं था बेशक सूरज निकल आये. उन्ही दिनों में हमारे मोहल्ले में कई लोग आये. उनमे से एक थी “वो” .

“वो” इसलिए कि मुझे उसका नाम याद नहीं अब.
“वो” को मैंने सिर्फ दो ही बार ही देखा है आजतक.

उन्ही दिनों मुहल्ले में एक कुतिया ने ६ पिल्लों को जन्म दिया था जिनमे से एक अत्यधिक ठण्ड कि वजह से दूसरे दिन ही मर गया था.

 “वो” को मैंने पहली बार उसी किराने की दुकान पर देखा था. आज तो मुझे उसका चेहरा तक याद नहीं पर उस दिन मैं शर्त लगा के कह सकता था कि वो बहुत सुन्दर थी . पहली ही नजर में “वो” किसी को भी आकर्षित कर लेती थी. उसके बोलने का ढंग, उसके चलने का ढंग, उसका रूप उसका रंग. मैंने उसे एक नजर भर देखा फिर खुद ही आँखें हटा ली. पर उसने मुझे देखा और थोड़ा मुस्कुरा के चल पड़ी. “वो” मेरे घर से ३ घर छोड़ कर अंदर चली गयी.
मैंने उसके जैसी ख़ूबसूरत लड़की पहले नहीं देखी थी.

२ हफ्ते बाद कुतिया भी चल बसी और बाकि के ५ पिल्लै भी एक या दो दिन के ही मेहमान रह गए थे. ठण्ड बढ़ गयी थी, अब रोज सुबह कम्बल से निकल कर चाय पीना मुश्किल हो गया था.

शाम को दोस्तों की मंडली फिर भी लगती थी, बातों में अक्सर चर्चा “वो” का होता था. जब टिप्पणियां सीमा से बाहर जाने लगती तो मैं वापस अपने कमरे की ओर निकल लेता.
कुछ ३ हफ्ते बाद मुझे किसी मित्र को स्टेशन से लाने जाना था. मैं जनवरी की कड़ाके की सर्दी में सुबह चाय पीने निकल पड़ा. सुबह के ६:३० बज रहे थे. मैंने दुकान वाले भैया को चाय के लिए बोलकर वहीं बेंच पर बैठ गया. कुतिया के पांचो पिल्ले वहीं आसपास खेल रहे थे. मैं चाय पीते पीते सोच ही रहा था कि वो अब तक जीवित कैसे हैं इतने में “वो” वहाँ आई. उसने एक ब्रेड का पैकेट खरीदा. उसके हाथ में एक प्लास्टिक कटोरी (bowl) थी. उसमे थोड़ा दूध भी पड़ा था. उसने ब्रेड का पैकेट खोला और ब्रेड के टुकड़े दूध में भिगो कर अपने हाथों से उन पिल्लों को खिलाने लगी. मेरी चाय खत्म हो गयी और मुझे ठण्ड भी नहीं लग रही थी. मैंने जाते जाते उसे एक और बार देखा.
उसका चेहरा याद नहीं पर उसकी आखों कि चमक नहीं भूल सकता.
मैंने उस जैसी ख़ूबसूरत लड़की फिर कभी नहीं देखी.

मैंने दूसरी गली से निकलते एक ऑटो को आवाज़ दी और स्टेशन की ओर चल पड़ा.

Sunday, November 18, 2012

वो मेरा गाँव ये तेरा शहर

तुम मुझे अपने शहर की शाम दिखा रहे हो,
कभी मेरे गाँव आओ, मेरा सुनहरा सवेरा देखो

ये कृत्रिम चकाचौंध रातों की, फीकी लगती है, उनको 
जो सितारों के उजालों में सोते हैं

तुम्हारा बोतलों में बंद पानी, बनावटी लगता है,
मेरे गाँव में छोटी नदी है,
पानी बहुत मीठा है उसका.

सब डिब्बे में बंद बिकता यहां,
बेजान आतिशें बेरंग होली यहाँ,
यहाँ पहली बारिश की खुशबू नहीं आती .

हवा से ज्यादा तुमलोगों की बातों में जहर घुला है,
बंद कमरे की छत से अच्छा मेरा आकाश खुला है

बहुत डर लग रहा है मुझे आजकल,
ये तुम्हारा शहर दौड़ता ही आ रहा है मेरे गाँव की ओर.

Friday, October 12, 2012

आकाश का वो हिस्सा मेरा है

३ साल से ऊपर हो गए मुझे कोटा से वापस आये पर कोटा मेरे मन से निकला नहीं.
कोटा एक ऐसी जगह है जहाँ से नफरत और प्यार साथ हो जाता है. धूप इतनी होती है की पसीने के साथ खून भी खींच ले! रातें दिन कब बनती है और दिन कब ढलता है इसका किसीको पता नहीं होता. रास्तों पर "maths", "physics", "chemistry" की "equations" हल की जाती हैं और रविवार को सड़कों पर जो काफिला होता है वो देखने लायक होता है. कोटा से प्यार पहली नजर में हो जाता है, फिर कुछ महीनों में यही प्यार ऐसी आदतें बना देता है जो आप कल्पनाओं में भी खुद को करते हुए नहीं देख पाता जैसे कई कई रातों तक लगातार जागना, घंटो तक एक ही सवाल से जूझना और फिल्में देखना. ऐसा हो ही नहीं सकता की कोई कोटा जाए और उससे फिल्में देखने का चस्का न लगे. आप के आदर्शों में कई नाम और जुड जाते हैं, आप अपने "faculty" को भगवान/शैतान का भेजा दूत मानते हो और ये भी एक साथ होता है. आप लाखों की भीड़ का हिस्सा बन जाते हो, फिर आप अपने आप को उस भीड़ से अलग करने की जद्दोजेहद में लग जाते हो. जो कामयाब होते हैं वो आइआईटी और एम्स में जाते है, बाकि अपने घरों को. ये कविता एक स्वार्थी दिल से निकली है, ये मेरा और मेरे जैसे हजारों लोग जो लाखों के भीड़ में खो गए उनका कहा-अनकहा सच है.
       "सीमायें मेरे सपनों की तुमने कब से तय कर दीं,
         मेरे पंखों की दिशाएं तुमने क्या से क्या कर दीं,
         जितने रंग थे मेरे वो छूपा ले गए, सिर्फ एक स्याही की कलम थमा दी,
        मैं लिखूंगा जो दिल चाहे, क्या लिखना है अब न बताओ मुझको
        मैं सीख लूँगा जब समय आएगा, यूँ वक्त-बेवक्त न सिखाओ मुझको.
        ये कैसी ऐनक से देखते हो दुनिया को, और वो भी मेरी दुनिया को.
        ये बचपन मेरा है, तुमसब बड़े लोग यूँ अधिकार न जमाओ इसपर.
        मैं लाऊंगा अपने रंग, और मोडूँगा अपने पंख जिधर जिद है उड़ने की मेरी.
       क्यूंकि, वो जो दिख रहा है न कोने में पड़ा, आकाश का वो हिस्सा मेरा है."

Thursday, July 5, 2012

चासनी

हम अपनी नयी दुनिया में ढल गए थे,
वो प्रातः उठाना और फिर सो जाना.
बिलकुल आखिरी क्षण कक्षा में आते थे,
बाल बिखरे और आँख मींचे रोजाना.
आइने की फिक्र करना भूल गए थे,
कैंटीन की सस्ती चाय से सुस्ती मिटाना
किताबों से अधिक अंतरजाल प्यारा लगने लगा
सवेरे से संध्या तक बस स्क्रीन पर आँखें टिकाना
यारों के संग टहलने लगे थे निशाचरों की भांति
यौवन का दंभ था कहते कि लायेंगे हम भी क्रांति
आँहें भी भरते थे गलियारों में उनको देखकर
मुस्कुराती आँखें मिलती तो पूरा दिन बन जाना
साल बीतने को है, जाने अब कब बात होगी
यारों से बिछड़ने कि बात पर दिल का ठिठक जाना
छुट्टियों  में घर तो सिर्फ सेहत बनाने जाने थे
बड़े अंतराल पर मिलता था माँ के हाथ का खाना
आखिरी साल है, कॉलेज अब खत्म होने को है, सब खट्टा-मीठा लग रहा है
बगैर चासनी जो शरबत पिलाई थी यारों ने, उसका स्वाद याद आ रहा है

Wednesday, March 28, 2012

अब मेरे जाने का क्षण आया है

अभी रोक न मुझको, अभी है जाना
अभी  जलता देश है उसे बचाना
क्यूँ व्यर्थ मनोहर बातों में तुम डूबे हो
क्यूँ संसार के क्षद्मों में तुम झूमे हो
हैं स्वप्न ये सारे, क्यूँ पलकें मूँद के सो जाना
यदि आँख खुले, मेरे पीछे आ जाना

मैं भी था मूरख , बड़ी देर भीड़ में खड़ा रहा
भीतर भीषण थी आग लगी, ऊपर सूरज था तपा रहा
घनघोर घटा बनके अब, भूमंडल पर है छा जाना
अभी जलता देश है उसे बचाना

जगत में मेरा जीवन क्षणिक है, अपूर्ण है
जितना भी अब शेष है, उसे राष्ट्रहित में लगाना
अभी रोक न मुझको, अभी है जाना
अभी  जलता देश है उसे बचाना

कुछ अभिलाषाएं हैं, कि सत्य जो ढंके है आवरण में
मरने से पहले अपने सत्य धरातल पर चिन्हित कर जाना
कि बनके भागीरथ फिर पवन गंगा को लाना
इस जलती रक्तरंजित भूमि को जलमग्न कराना
अभी रोक न मुझको, अभी है जाना
अभी  जलता देश है उसे बचाना


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