Sunday, December 22, 2013

ऐ शाम तू कब आई, पता ही नहीं चला.


मैं उगते सूरज की राह तकते, सोया नहीं था रात भर
ऐ शाम तू कब आई पता ही नहीं चला
कल समय से कहकर आना, तेरे आने पर धीमे चले
बहुत जलता है वो मुझसे जब तू मेरे साथ होती है
मेरे कन्धों पर हाथ रखा, हौले से मेरी पीठ थपथपाई
ऐ शाम तू कब आई .....

पहले तो रात से छुपा कर चिट्ठियां छोड़ दिया करती थी
तेरी आखिरी चिठ्ठी कब आई पता ही नहीं चला
देख रात नाराज़ है मुझसे, तू मेरे लिए उससे बात कर
अरसों से मुझे नींद नहीं आई 
ऐ शाम तू कब आई .......






Monday, October 7, 2013

मेरा अक्स, मेरा साया, घर का आइना और घुप्प अँधेरा

१. मैं खाता हूँ कसमे आईने की
    और तोड़ देता हूँ आइना ही. 
    चिर काल से कसम खा रहा हूँ,
    घर में एक भी शीशा नहीं बचा
    आखिर खफा किससे हूँ,
    आईने से या अपने वादों से
    या शायद अपनी सूरत से नाराज़ हूँ,
    कि अपने अक्स से नजरें नहीं मिलानी अब.

२. वक़्त रोज़ यूँ भागता हैं
    मानो कल मिलेगा नही
    एक शह दे रखी है जिंदगी ने
    मेरी मात का इंतज़ार है
    तैयार बैठे हैं सारे साए 
    अँधेरे कोनों में घात लगाये
    एक हम हैं जो हस देते हैं देखकर
    कि अपना साया भी कोने में छुप गया है अब.

Friday, August 30, 2013

रूपया, तेल और प्याज का तड़का.

-अजी सुनते हो, रूपया गिर गया है!
-कौन गिर गया?
-रूपया, अरे हमारा रूपया गिर गया है?
-कहाँ गिरा वो, चोट तो नहीं लगी?
-अरे! पूरी बात तो सुन लिया करो. बाज़ार में गिर गया,
  डॉलर के मुकाबले आज रूपया फिर से गिर गया.
-डॉलर? डॉलर से क्यूँ लड़ रहा था?
-अरे लड़ नहीं रहा था. हे भगवान्! अब तुम्हे कैसे समझाऊँ?
-क्या समझने-समझाने की बात कर रही हो? रूपया गिर गया है तो उसे मरहम लगाओ, चोट लगी होगी.
 एक काम करो जरा से तेल गर्म करके लगा दो.
-अरे तेल का तो नाम मत लो, ११२ डॉलर का एक बैरल मिलता है आजकल.
-ये तुम कौन से तेल की बात कर रही हो?
-अरे एक ही तो तेल है जी, कच्चा तेल! जिसके लिए आजकल अमरीका सीरिया जा रहा है लोकतंत्र स्थापित करने.
-अरे भागवान! मैं सरसों तेल की बात कर रहा हूँ.
-तो क्या रुपये की चोट पर अब सरसों लगाओगे? सरसों भी महंगा हो गया है. इस चोट का इलाज तो मनमोहन की FDI भी नहीं कर सकी.
-जब से ये अर्नब गोस्वामी का "Nation wants to know" शुरू हुआ है गृहणियां भी "Financial Experts"  बन गयी हैं.
-हुंह ! अगर हम न होती तो घर का "budget" कभी संभाल नहीं पाते.
-अच्छा, वो सब छोड़ो ये बताओ खाने में क्या बना है?
-दाल-चावल बने हैं. फ्रिज में पड़े हैं, निकल कर खा लो. मैं "Times Now" देख रही हूँ.
-अच्छा एक काम करो, कम से कम तड़का तो लगा दो. मुझे "उतरन" देखनी है.
-एक मिनट रुक जाओ, "GDP" के बारे में बता रहे हैं. और हाँ! प्याज ८० रुपये किलो हो गया है, सिर्फ जीरे का तड़का लगाओ अब.

Monday, August 26, 2013

दो पैरों में दो चप्पलें

बदरा छाई, बरसी गरज गरज कर
हम किताबें कमीज़ में छुपाये दौड़े

तन भीगा, सर को झांप झांप कर
हमने बाधा-धावकों के रिकॉर्ड तोड़े

ट्रक आया, पानी छपक छपक कर
हमे मिट्टी का रंग लगाता गया

और साइकिल सवार एक युवक, उस
ट्रक चालक को मीठे बोल सुनाता गया

सड़क खो चुकी थी छोटे तालाबों में, मेरा
हौसला कमर तक कीचड़ में समाता गया

आँखें आधी बंद पड़ी, भरी दोपहर
दो पल में काली रात सी हो गयी

पानी से पाँव बचाने के क्रम में
हमसे एक भारी गलती हो गयी

जिसको ठोस जमीन समझकर कूदें
उस रेत में पाँव खम्बे सा खड़ा हो गया

मेरी एक चप्पल उलझकर टूट गयी
मुझे देख हर मुखड़ा ठहाके लगा गया

तब से दोनो  पैरों में अलग अलग चप्पलें हैं
और लोग समझते हम कोई फैशन मॉडल हैं.

Wednesday, August 14, 2013

इतना सेंटी क्यूँ होते हो, झंडा ही तो है.

१५ अगस्त २०१३, आज़ादी की ६६वी वर्षगांठ आ गयी. लीजिये, सरकारी छुट्टी है आराम से घर पर मौज करने का दिन है. हफ्ते के बीच का रविवार मान लीजिये. जिनके घरों में बिजली होगी वो दूरदर्शन चला लेंगे, नहीं तो शाम को बाकि खबरिया चैनलों पर दिखा ही दिया जायेगा दिल्ली का "झंडोतोलन समारोह".
वैसे भी अब पहले जैसा माहौल कहाँ रहा. पहले प्रभात फेरियां निकला करती थीं. अब भी निकलती होगी दूर  दराज के गाँवों में, पर, हम तो शहर में रहते हैं जी. जिनके दफ्तरों में अनिवार्य है की आना ही पड़ेगा, वो बिचारे सुबह सुबह जायेंगे आधे घंटे देश प्रेम व्यक्त करने. जो अभी स्कूल या कॉलेज में पढ़ते हैं वो भी जायेंगे.
आजकल राष्ट्रगान तो सिर्फ बच्चे ही गाते हैं. समझ नहीं है न इनको कि ये सब जो इन्हें सिखाया जा रहा है, ये जो देश प्रेम की घुट्टी पिलाई जा रही है, असल जिंदगी में इनका कोई महत्व नहीं है. कल ये भी रिश्वत देंगे, सिग्नल तोड़ कर ५० रुपये का नोट पकड़ा देंगे और अगर किसी को ठोक दिया सड़क पर तो वकील कर लेंगे.
सजा तो सिर्फ गरीबों को होती है. गरीब होने की सजा. पर मेरा देश आज़ाद है. येहाँ सड़क पर मूतने की आज़ादी है, चूमने पर पुलिस पकड़ लेती है. १४-१५ साल के बच्चों के शादी अगर माँ-बाप करा दे तो कोई सर नहीं पीटता पर अगर वही कोई २१ साल की लड़की अपनी मर्ज़ी से शादी करले तो वर-वधु दोनों कटे हुए मिलेंगे. यहाँ मूंछों के लिए अपनी ही बेटी अपनी ही बहिन को मार डालने की आज़ादी है. यहाँ लड़किओं को आज़ादी है बलात्कार का शिकार होने की. पुलिस को आज़ादी है सोती हुई सभा पर डंडे बरसाने की, शांत भीड़ में औरतों, बच्चों बुजुर्गों पर आंसू गैस छोड़ने की. यहाँ सैनिकों को आज़ादी है नेताओं की रक्षा करने की, सीमा पर सर कटाने की. यहाँ माओं को आज़ादी है शहीद बेटे की तिरंगे में लिपटी लाश का इंतज़ार करने की. और नेताओं को आज़ादी है ये कहने की, "सैनिक तो शहीद होने के लिए सेना में भरती होता है" . यहाँ अखबारों को आज़ादी है सरकार के अनुसार खबर छापने की. यहाँ बहुत आज़ादी है मेरे साथियों. यहाँ आप आज़ादी से बेरोजगार घूम सकते हैं. यहाँ बड़ी स्वतंत्रता से अनाज की, फल सब्जी की बोरियां गोदामों में सडती है. आप स्वतंत्र होकर "लोन" पर कार खरीद सकते हैं. अगर आप रेत माफिया हैं तो किसी भी नदी के तट से खुले आम रेत उठाकर बेच सकते हैं. बापू ने नमक भी तो ऐसे उठाया था न. अगर आप सरकार है तो खेती की जमीन को औने पौने दामों में कारखानों के लिए बेच सकते हैं. ऐसी आज़ादी और कहाँ.
अपना उबलता खून शांत रख कर घिसटती हुई जिंदगी पर व्यंग्य कस सकते हैं. फिल्मों और फिल्म कलाकारों की पूजा कर सकते हैं. अपने "लोन" पर बनाये घर के बगीचे में बैठ कर यह कह सकते है "नेताओं ने देश बर्बाद कर दिया". आप सबको देश की आज़ाद होने की ६६वी सालगिरह मुबारक. कल सुबह सड़क पर प्लास्टिक का
"मेड इन चाइना" तिरंगा नाली में गिरा मिले तो उठा लेना. ये मत कहना, झंडा ही तो है.

Thursday, July 4, 2013

जो मैं हूँ.

मैं एकाकी, मैं शर्मीला,
मैं हठधर्मी, मैं वैरागी,
मैं अपने आप से बातें करता गृहत्यागी
मैं चिन्तक, मैं संकोची,
मैं अल्हड़, मैं अनुरागी,
मैं चढ़ा त्योरियां प्रश्न पूछता एक बागी.

Sunday, April 21, 2013

हम दिशाहीन नहीं थे, बनाये गए!

File:StateLibQld 1 295751 Eighteen footer sailing boats racing in the Australian Championship on the Brisbane River, ca. 1930.jpg 

कोई प्रश्न नहीं पूछा, कोई व्याख्या नहीं दी
इक तस्वीर दिखाई पनघट की
और छोड़ दिया
उफनते विचारों के बीच भंवर में
कोई दिशा निर्देश नहीं, कोई पतवार नहीं थी
बस नौकाओं की कतार हर कहीं
सो  मोड़ दिया
नौका का रुख, कस के डोर कमर में
उस ओर जहाँ सब नौकाएं बढ़ी जा रही थी
सबको बस पहुँचने की जल्दी थी
लहरें आतुर थी
भीतर अपने हमें समाने के चक्कर में
एक द्वीप दिखा सागर में, नौकाएं सबकी
टकराईं, हमने भी तुमने भी
और तोड़ दिया
नौका को सपने सा, निहत्थे महा समर में
हम लड़ते रहे व्यर्थ उनके मनोरंजन के लिए
जिन्होंने तट पर बने महलों में
बैठ हमें पनघट का चित्र दिखाकर
और जलपरिओं की कथाएं सुनाकर
दिशाहीन बनाया
और छोड़ दिया
उफनते विचारों के बीच भंवर में.

चित्र wikipedia से लिया गया है, अगर ये आपकी अधिकारिक संपत्ति है तो मेसेज करें और मैं इसे हटा दूँगा.

Monday, March 25, 2013

शक्ति का संघर्ष (II) - धर्मं

जारी ..
अपने  इस लेख के माध्यम से मैं शक्ति के संघर्ष को विस्तार से परिभाषित करने का प्रयास कर रहा हूँ. मैं स्वयं इस खोज में लगा हूँ कि आखिर शक्ति के आज के इस विश्वस्तरीय संघर्ष में सबसे अहम भूमिका किसकी है?
क्या वो धर्म की है, या जाति की, या भाषा की, या राष्ट्रवाद की, या लिंग की, या फिर पैसे की?
क्या ये अपना वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई है?
या फिर ये सिर्फ अपना अस्तित्व बरक़रार रखने का संघर्ष है?

हमारा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है.

तुम्हारा ये लिबास हमसे मेल नहीं खाता, 
तुम्हारी भाषा हमें समझ नहीं आती,
तुम्हारा  रंग चेहरे का हमे रास नहीं आता,
तुम्हारे घर की छत इतनी ऊँची क्यूँ,
तुम्हारा खान पान भी हमे नहीं भाता
 तुम हमसे भिन्न हो, तुम्हे इसका दंड मिलेगा
क्यूँकि तुम ठहरे बीस हम सहस्त्र हैं खड़े
तुम्हारा सत्य नगण्य है हमारे सत्य के समक्ष
 इसलिए हम सही हैं और तुम गलत.
हमे चुना गया है तुम्हे सही राह दिखाने को
क्यूंकि हमारा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है.




इतिहास के पन्नों में अंकित है कि मानव सभ्यता पिछले ८००० वर्षों के दौरान, सिर्फ ३०० वर्षों में शांति के साथ रही है अन्यथा परस्पर विवाद और युद्ध होते आ रहे हैं. धर्म ने शक्ति के संघर्ष में आग में घी की भूमिका निभाई है. ये सिर्फ हमारा एक सुखद भ्रम है कि ईश्वर और धर्म मनुष्य के जीवन में सुख और शांति प्रदान करते हैं.
धर्म की चर्चा को मैं यहाँ एक विराम दे रहा हूँ.

समाप्त


Wednesday, March 20, 2013

शक्ति का संघर्ष (II) - धर्म

जारी ....
धर्म की उत्पत्ति, विकास और प्रभाव 

पिछली कड़ी में मैंने ये बताने कि कोशिश की थी कि कैसे धर्म शक्ति हासिल करने और लोगों पर शासन करने का एक माध्यम है. लेकिन अगर मैं सिर्फ यही कहने तक सीमित रह जाऊं कि धर्म सिर्फ शक्ति अर्जित करने का माध्यम था और कुछ नहीं तो मैं आपको सारे तथ्य नहीं बता पाऊंगा.
प्रकृति के संसाधन हर किसी को बराबर भाग में नहीं मिलते. संसार की हर प्राचीन सभ्यता एक दूसरे से विषम परिस्तिथिओं में विकसित हुईं हैं. इसीलिए उनके ईश्वर और धार्मिक ग्रन्थ भिन्न हैं. पर एक मूलभूत विचार जो हर धार्मिक ग्रन्थ और हर नयी पुरानी सभ्यता इतिहास में साफ़ साफ़ अंकित है वो है प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाना और प्राकृतिक संसाधनों का सही इस्तेमाल करना. जब पृथ्वी पर सभ्यताओं के अंकुर फूट रहे थे तब मनुष्य का जीवन अव्यवस्थित और अराजक था. ऐसे में मानव समाज को, जो विश्व की महान नदियों और समुद्र के किनारे फल फूल रहा था, दिशा और नियम की आवश्यकता थी.
यही वो महत्त्वपूर्ण समय है जब धर्म ने मनुष्य को प्रकृति से जोड़ा और प्राकृतिक संसाधनों का आदर करने के लिए कई धर्मों ने उन्हें ईश्वरीय रूप दिया. इन नियमों को मानने या न मानने पर मनुष्य के पास पुरस्कार या दंड के ही विकल्प थे.
इसके अलावा हर धर्म के ऋषिओं, पैगम्बरों और गुरुओं ने प्रकृति के नियमों को समझने और समझाने का भी प्रयत्न किया. ऋतुओं के चक्र का उल्लेख हुआ , पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और प्रमुख ग्रहों के प्रावेदन और उसके कथित प्रभावों का भी अध्ययन किया गया.
धर्म ने समाज में नैतिकता प्रयुक्त की और सही गलत में अंतर बताने के लिए एक शक्तिशाली , अपरिमित और निष्पक्ष ईश्वर स्थापित किया. ये सभ्यताओं का स्वर्णिम समय था.

पर शक्ति किसी को भी भ्रष्ट कर सकती है चाहे वो धर्म हो या मनुष्य. और अपने शक्ति के अहंकार में धर्म के प्रचारकों ने अपनी त्रुटियाँ देखने से इनकार कर दिया. विज्ञान पढ़ने और पढाने वालों को कैद किया गया, यंत्रणा दी गयी या हत्या कर दी गयी. धर्म में संशोधन और विकास की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी.
धर्म ने पुरुष और स्त्री में भी भेदभाव किया और लगभग सभी प्रमुख धर्मों ने स्त्री को अधीनस्थ बताया. (नारी-शक्ति के ऊपर विस्तार से चर्चा अगले भाग में करूँगा.)
जब कोई भी वस्तु शिथिल हो जाती है तो वह निष्क्रिय होने लगती है. इसलिए मेरे अनुसार आज संसार के सभी प्राचीन धर्म लगभग निष्क्रिय हो गए हैं और वर्तमान में ये नकारात्मक बल का ही काम कर रहे हैं. शक्ति के संघर्ष में "धर्म", "अर्थ" (मुद्रा) और "राज्य" (state/administration) के सामने फीका पड़ने लगा है. लेकिन आज भी "धर्म" मनुष्य के जीवन का और हमारे समाज की व्यवस्था में एक  महत्त्वपूर्ण अंग है.
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...क्रमशः

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